हरे कृष्णा!
धन्यवाद। यह मेरे लिए एक विशेष सौभाग्य की बात है कि मैं आज आप सभी के साथ हूं। आप लोग काफी समय से समकालीन विषयों पर चर्चा कर रहे हैं और मैं इस संवाद का हिस्सा बनकर बहुत खुश हूं। प्रभु, हमारे साथ जुड़ने के लिए धन्यवाद।

आज के विषय पर चर्चा शुरू करने से पहले, मैं यह जानना चाहूंगा कि जब हम विज्ञान के बारे में सोचते हैं तो सबसे पहले वैज्ञानिकों की बातें दिमाग में आती हैं, और यह थोड़ा अलग किया जाता है आध्यात्म से। तो, आज के विषय की शुरुआत करते हुए, प्रभु, मैं जानना चाहूंगा कि क्या आध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं? क्या इनके बीच कोई संबंध है? हम किस प्रकार इन दोनों को जोड़ सकते हैं और उनमें समानताएं कहां देख सकते हैं? तो इसी से हम आज के संवाद की शुरुआत करते हैं, प्रभु। हां।

यह सवाल मुझे व्यक्तिगत रूप से आध्यात्म की ओर ले आया था। हम कह सकते हैं कि विज्ञान एक बड़ा पर्वत है ज्ञान का, और आध्यात्म भी एक बड़ा पर्वत है ज्ञान का। लेकिन इनके बीच एक बड़ी खाई है। क्या हम इस खाई को कोई सेतु बना सकते हैं? यही मानवता की सबसे बड़ी खोजों में से एक है। हम कह सकते हैं कि विज्ञान भौतिक तत्वों का अध्ययन करता है, जबकि आध्यात्म यह समझता है कि क्या वास्तव में महत्वपूर्ण है।

उदाहरण के तौर पर, जब अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में थे, तो वह धनुर्विद्या में निपुण थे। उस समय का विज्ञान, तंत्रज्ञान उनके पास था। लेकिन उस समय उनका सबसे बड़ा सवाल था कि युद्ध करना चाहिए या नहीं? और इसी सवाल का उत्तर उन्हें भगवान के ज्ञान से प्राप्त हुआ।

तो, हम कह सकते हैं कि विज्ञान का अपना एक क्षेत्र है, और आध्यात्म का भी एक क्षेत्र है, और दोनों मानवता के लिए महत्वपूर्ण हैं। हमारी वैदिक संस्कृति में आयुर्वेद है, जो विज्ञान और आध्यात्म का एक संगम है। आयुर्वेद भौतिक कारणों को समझता है, जैसे अगर किसी का पेट बिगड़ गया है, तो वह यह नहीं कहता कि भगवान नाराज हैं, बल्कि वह यह देखता है कि शरीर में किस तरह का असंतुलन है।

विज्ञान भौतिक तत्वों का अध्ययन करता है, और यह बहुत महत्वपूर्ण है। परंतु क्या इस भौतिक जगत के अलावा कुछ और है? और यदि है, तो सबसे महत्वपूर्ण क्या है? आध्यात्म यही बताता है। विज्ञान बाहरी दुनिया को सुधार सकता है, लेकिन आध्यात्मिकता हमारी आंतरिक दुनिया को सुधार सकती है।

इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य की चेतना को ऊंचा उठाना आवश्यक है, और इसके लिए दोनों, विज्ञान और आध्यात्म, दोनों की आवश्यकता है। कुछ वैज्ञानिकों का यह कहना है कि अगर आप भगवान को स्वीकार करते हैं, तो आप वैज्ञानिक नहीं हो सकते, लेकिन यह एक भ्रांति है। अगर हम आधुनिक विज्ञान के इतिहास को देखें, तो न्यूटन, गैलीलियो, पास्कल, केल्विन और आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिकों ने भगवान में विश्वास किया था और वे इस विश्व में किसी उच्च बुद्धि को मानते थे।

यह विज्ञान के खिलाफ नहीं है। दरअसल, दोनों विज्ञान और आध्यात्म का मानवता के लिए महत्व है। विज्ञान हमारे बाहरी संसार को सुधारता है, और आध्यात्मिकता हमारे विचारों और आंतरिक चेतना को शुद्ध करती है। जैसे आपने कहा, विज्ञान हमारे आसपास की चीजों को सुधारता है, और आध्यात्मिकता हमारे आंतरिक विचारों को।

इसी तरह से भगवान के ज्ञान का पालन करने से हम बाहरी और आंतरिक दोनों ही स्तरों पर सुधार ला सकते हैं। यह हमारे समाज के लिए एक बड़ा उपकार है। इसलिए, दोनों विज्ञान और आध्यात्म को हम अपने जीवन में संतुलित रूप से स्वीकार कर सकते हैं।

कुछ वैज्ञानिक यह सोचते हैं कि अगर हम भगवान को मानते हैं तो हमारा वैज्ञानिक जिज्ञासा समाप्त हो जाएगी। लेकिन यह गलत है। मुझे याद है, कुछ समय पहले जब मैं पश्चिम में था, तो इंग्लैंड में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गया था, जहां वह प्रसिद्ध पेड़ है जिसके नीचे न्यूटन बैठे थे और जिसके कारण उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। वह पेड़ आज वैज्ञानिकों के लिए एक तीर्थ स्थल बन गया है।

न्यूटन खुद भगवान में विश्वास करते थे, और जब पेड़ से फल गिरा, तो उन्होंने केवल यह नहीं सोचा कि यह भगवान की इच्छा से गिरा है, बल्कि उन्होंने यह भी सोचा कि इस प्रक्रिया का भौतिक कारण क्या है। यह वही विश्वास है जो विज्ञान में है कि प्रकृति एक आदेश में चल रही है, न कि संयोग से।

न्यूटन ने कहा था कि “मैं खुद को एक बच्चे की तरह देखता हूं जो समुद्र के किनारे खेल रहा है और चमकदार पत्थर या सुंदर सीपियां ढूंढ रहा है, जबकि सत्य के विशाल महासागर का एक हिस्सा भी मुझे नहीं मिल पाया।” यह इस बात को दर्शाता है कि विज्ञान और आध्यात्म दोनों का अस्तित्व साथ-साथ है और एक-दूसरे को पूरक बनाते हैं।

तो असल में भगवान में विश्वास हमारी जिज्ञासा को बढ़ाता है, यह हमारी जिज्ञासा को रोकता नहीं है। हमारी जिज्ञासा बढ़ती है। इसलिए हमारे शास्त्रों में “ब्रह्म जिज्ञासा” का उल्लेख किया गया है, अर्थात जिज्ञासा करो।

तो शास्त्रों में, आप कह सकते हैं कि विश्वास और जिज्ञासा दोनों एक साथ चलते हैं। जी हां, बिल्कुल, बहुत सही कहा आपने प्रभु जी कि “जो कानून होता है, उसका एक कानून बनाने वाला भी होता है।” जैसे हम बताते हैं कि योजनाएं हैं, सिद्धांत हैं, उनके नियम बनाए गए हैं, तो निश्चित रूप से उनके नियमों को बनाने वाला भी होगा। जैसा आपने उदाहरण दिया, जब ऐप्पल गिरा, तो वह ऐप्पल पहले भी गिर सकता था, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत पहले से था।

लेकिन अब वैज्ञानिकों ने उसे खोज लिया। तो आप सही कह रहे हैं कि वैज्ञानिक संशोधन करके यह समझने की कोशिश करते हैं कि यह कैसे काम करता है। इसमें कोई नई खोज नहीं की जाती, बल्कि जो भगवान ने पहले से बनाया है, उसके संचालित होने के तरीके को समझने की कोशिश की जाती है। हां, बिल्कुल।

वैज्ञानिकों के दृष्टिकोण से, यह समझा जा सकता है कि वे अपने संशोधन में भगवान को शामिल नहीं करते, क्योंकि वे जो खोज कर रहे हैं, वह पहले से ही भगवान के द्वारा स्थापित नियमों पर आधारित है। जैसा कि शास्त्रों में भी कहा गया है कि जब अर्जुन को युद्ध करना था, तो वह शस्त्रों के बारे में सोचते थे और उनकी प्रतिक्रिया उसी आधार पर तय करते थे। इसका मतलब यह है कि कार्य करते समय, भगवान की इच्छा को ध्यान में रखते हुए भी, हम हर चीज़ पर भगवान का स्मरण नहीं करते। प्रभु ने भी कभी कहा था कि हमें भगवान को हर छोटी-छोटी चीज़ पर कारण के रूप में नहीं देखना चाहिए।

मुझे याद है, जब पहली बार लंदन में रथ यात्रा हुई थी, तो भक्तों ने रथ बनवाया, लेकिन रथ के पहिए बहुत छोटे बनाए थे और वह रथ गिर गया। भक्तों ने प्रभु से पूछा कि क्या हमारी भक्ति की कमी के कारण रथ गिरा? तो श्री चोपड़ा जी ने कहा था, “रथ गिरा है, यह भक्ति की कमी के कारण नहीं, बल्कि इंजीनियरिंग की कमी के कारण हुआ है।” इसका मतलब यह है कि जब वैज्ञानिक अपने संशोधनों में भगवान का उल्लेख नहीं करते, तो वह गलत नहीं है।

विज्ञान में दो दृष्टिकोण होते हैं: एक है “आस्तिक” और दूसरा है “नास्तिक”। आस्तिक वह होते हैं जो भगवान को मानते हैं, जबकि नास्तिक वह होते हैं जो भगवान के अस्तित्व को नकारते हैं। विज्ञान में कार्य करते वक्त वैज्ञानिक प्रायः भगवान के अस्तित्व पर विचार नहीं करते। जैसे डॉक्टर किसी मरीज की बीमारी का कारण ढूंढते हैं, या इंजीनियर किसी कार की समस्या का समाधान करते हैं, वे भगवान का नाम नहीं लेते, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे भगवान के अस्तित्व को नकारते हैं।

विज्ञान एक उपकरण है, जैसे चश्मा होता है। चश्मे से हम किसी चीज़ को देख सकते हैं, लेकिन चश्मे का उद्देश्य नहीं है कि वह भगवान का दर्शन कराए।

अब ओपेनहाइमर के बारे में, वह यूरोपीय वैज्ञानिक थे, जो बाद में अमेरिका में आए। उन्हें भारतीय ग्रंथों, विशेष रूप से भगवद गीता, में गहरी रुचि थी। 1933 में उन्होंने संस्कृत सीखी ताकि वह भगवद गीता को मूल भाषा में पढ़ सकें। वह हार्वर्ड में भौतिकी और रसायन विज्ञान के छात्र थे, लेकिन उनका अधिक ध्यान संस्कृत साहित्य पर था। जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, तो ओपेनहाइमर ने परमाणु बम बनाने के विचार पर काम किया था, और जब यह परीक्षण किया गया, तो यह एक ऐसा विध्वंस था, जिसकी कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी। इस विध्वंस को देखकर कुछ वैज्ञानिक रो रहे थे और कुछ खुशी से झूम रहे थे।

ओपेनहाइमर ने उस समय भगवद गीता का एक श्लोक उद्धृत किया था: “कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।” अर्थात “मैं काल हूँ, लोकों के विनाश के लिए उपस्थित हूँ।” यह श्लोक यह बताता है कि अच्छे लोगों के पास जब अच्छे विकल्प नहीं होते, तो वह हिंसा का सहारा लेते हैं ताकि और बड़ी हिंसा को रोका जा सके। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसा अर्जुन ने युद्ध के बारे में सोचा था।

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से यह पूछा था कि “आप कौन हैं?” क्योंकि जब वह विश्वरूप देखते हैं, तो उनकी आँखों के सामने एक विशाल और भयावह दृश्य था, जिससे वह भयभीत हो गए थे। यही भाव ओपेनहाइमर के मन में भी था, जब उन्होंने परमाणु बम के प्रभाव को देखा था।

इस तरह से भगवद गीता का यह श्लोक ओपेनहाइमर की स्थिति से मेल खाता है, जहाँ युद्ध और विध्वंस के बीच एक कठिन निर्णय था।

अर्जुन को विश्वरूप के बारे में पता है कि भगवान ने पहले विश्वरूप दिखाया था, लेकिन जब भगवान ने पहले कभी भी विश्वरूप दिखाया है, तब उस रूप में काल रूप (विध्वंसक रूप) नहीं था। भगवान ने यह रूप दुर्योधन को और यशोदा माँ को दिखाया था। काल रूप का मतलब वह रूप है जो विध्वंस करता है, जो नष्ट करता है। ऐसा रूप भगवान ने अर्जुन को पहले कभी नहीं दिखाया था। मान लीजिए, हमारे कोई बचपन से मित्र हैं, जो बहुत मधुर स्वभाव के होते हैं, बहुत अच्छे कार्य करते हैं, और एक सालों के बाद हम उनसे मिलते हैं। हम साथ में टहलने के लिए जा रहे हैं, बातचीत चल रही है, और अचानक कुछ गुंडे हम पर हमला कर देते हैं। और एकाएक, हमारा वह मित्र कोई मार्शल आर्ट्स मूव करता है और सारे गुंडे नीचे गिर जाते हैं। हम पूछते हैं, “आप कौन हो?” तो वह कहते हैं, “मैं तो वही मित्र हूँ,” लेकिन अब हम सोचते हैं, “यह कौन है?” वह कहता है, “अच्छा, मैंने Karate सीखा है और अब मैं Black Belt हूँ।”

ठीक वैसे ही, जब अर्जुन पूछते हैं, “आप कौन हो?” तो भगवान कहते हैं, “मैं काल हूं।” भगवान यह बताते हैं कि उनका रूप विध्वंसक रूप है और वह संसार के विनाश के लिए आए हैं।

यह वही रूप है जो भगवान ने अर्जुन को दिखाया था, और भगवान ने अर्जुन से कहा कि वह काल हैं, जो सबका नाश करने के लिए आ चुके हैं। इस संदर्भ में, ओपेनहाइमर का भी द्वंद्व था कि उन्होंने अणुबॉम्ब (atom bomb) का परीक्षण किया था, जो एक नई तरह की विनाशकारी शक्ति थी। ओपेनहाइमर ने महसूस किया था कि यह शक्ति बहुत भयावह है, जैसे भगवान का काल रूप था। ओपेनहाइमर ने कहा था कि “यह शक्ति भगवान जैसी शक्ति है,” जो किसी भी युद्ध के अंत को दिखाती है।

भगवद गीता का ओपेनहाइमर के जीवन में गहरा प्रभाव था, और वह इसे एक दार्शनिक कविता मानते थे। उन्होंने कहा था कि “भगवद गीता विश्व इतिहास में सबसे सुंदर दार्शनिक कविता है।” वह भगवद गीता को समझने के लिए संस्कृत भी सीखते थे, ताकि वे इसके गहरे अर्थ को समझ सकें।

अब, जैसे आपने कहा कि गीता को उद्धृत करने से कई बार गलत व्याख्याएं दी जाती हैं। एक सामान्य मिसअंडरस्टैंडिंग यह है कि गीता में कहा गया है “कर्म करो, कर्म ही पूजा है,” लेकिन यह केवल एक संक्षिप्त रूप है। असल में गीता कहती है कि हमें अपने कर्मों के माध्यम से भगवान की पूजा करनी चाहिए। यह एक अधूरी व्याख्या है, और इसको पूरी तरह से समझे बिना इसे प्रस्तुत करना गलत है।

अगर किसी व्यक्ति ने गीता का एक श्लोक उद्धृत किया है और उसी को उसने अपनी शिक्षा मान लिया, तो यह सही नहीं है। गीता का अध्ययन गहरे तरीके से किया जाना चाहिए, न कि केवल एक वाक्य को उद्धृत कर उससे निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।

जहां तक रचनात्मक स्वतंत्रता (artistic freedom) का सवाल है, यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी रचनात्मक काम में सीमाएं होनी चाहिए। अगर किसी फिल्म या ड्रामा में भगवद गीता का उद्धरण किया जाता है, तो यह समझना जरूरी है कि यह किस संदर्भ में किया जा रहा है। अगर कोई व्यक्ति गीता को उद्धृत करता है और फिर उसे गलत संदर्भ में प्रस्तुत करता है, तो यह गलत है। रचनात्मक स्वतंत्रता का उपयोग तब तक ठीक है, जब तक वह किसी के धार्मिक या सांस्कृतिक विश्वासों को ठेस न पहुंचाए।

यदि किसी फिल्म या नाटक में भगवद गीता को उद्धृत किया जाता है और इसे गलत संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है, तो यह गलत है। विशेष रूप से यदि फिल्म में गीता का उद्धरण किसी अपत्तिजनक दृश्य के साथ किया जाता है, तो यह अनुचित है और इसे उचित रूप से नहीं लिया जा सकता।

जहां तक भारतीय संस्कृति और भगवद गीता का सवाल है, हमें यह समझना चाहिए कि गीता केवल एक दार्शनिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह एक धार्मिक ग्रंथ भी है। इसे समझने में गलती करने के बजाय, इसे सही संदर्भ में ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

फिल्म निर्माता या लेखकों को गीता का सही संदर्भ समझना चाहिए और उसे उसी संदर्भ में प्रस्तुत करना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो यह केवल असक्षमत्ता (incompetence) और अज्ञान (ignorance) का परिणाम हो सकता है।